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सरहुल पर्व: प्रकृति और आस्था का पावन उत्सव.

रांची : झारखंड और छत्तीसगढ़ समेत देश के कई हिस्सों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लिए सरहुल पर्व एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव है।

यह पर्व वसंत ऋतु में मनाया जाता है और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का प्रतीक माना जाता है। सरहुल मुख्य रूप से साल वृक्ष (Shorea robusta) की पूजा से जुड़ा हुआ है, जो आदिवासी समाज की संस्कृति और परंपरा में गहराई से रचा-बसा है।

सरहुल पर्व का महत्व

सरहुल का अर्थ है ‘साल वृक्ष का उत्सव’। यह पर्व चैत्र महीने के तीसरे दिन मनाया जाता है, जब साल के वृक्षों में नए पत्ते और फूल आते हैं। इस त्योहार को प्रकृति की नई शुरुआत और फसल के आगमन का प्रतीक माना जाता है। आदिवासी समुदाय इसे धरती की पूजा के रूप में भी देखते हैं और जल, जंगल, जमीन के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं।

सरहुल पर्व की खासियत

1. साल वृक्ष की पूजा – इस दिन साल वृक्ष के फूलों को ग्राम देवता को अर्पित किया जाता है और जल स्रोतों की पूजा की जाती है।

2. पारंपरिक नृत्य और गीत – पुरुष और महिलाएं पारंपरिक वस्त्र पहनकर झूमर और सरहुल नृत्य करते हैं, जो इस पर्व की शोभा बढ़ाते हैं।

3. सरना स्थल पर अनुष्ठान – आदिवासी समुदाय अपने सरना स्थल (पवित्र स्थान) में एकत्रित होकर पूजा-अर्चना करते हैं।

4. पारंपरिक भोजन – इस अवसर पर ‘हंडिया’ (स्थानीय चावल से बना पेय) और विभिन्न पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं।

5. सामाजिक समरसता – यह पर्व सभी समुदायों को जोड़ने का कार्य करता है और सामाजिक एकता को मजबूत करता है।

 

संस्कृति और परंपरा का संरक्षण

सरहुल पर्व पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी संस्कृति की अनमोल धरोहर को दर्शाता है। इसे न केवल झारखंड बल्कि छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार के आदिवासी समुदायों द्वारा भी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

सरहुल सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और सामूहिक आनंद का प्रतीक है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखता है।

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