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जामताड़ा में हुई थी ‘बांग्ला वर्ण’ की रचना, जानें विद्यासागर ने किन मुश्किलों में लिखी बंगाली समुदाय की पहली पुस्तक

साइबर क्राइम के रूप में पूरे देश में बदनाम जामताड़ा जिले की पहचान ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कर्मभूमि के रूप में भी रही है। यही नहीं बांग्ला भाषा में अक्षर बोध कराने वाली पहली पुस्तक वर्ण परिचय की रचना भी जामताड़ा जिले के कर्माटांड़ में हुई है। 1874 ईस्वी में जब ईश्वर चंद्र विद्यासागर जामताड़ा जिले के कर्माटांड़ स्थित नंदनकानन में आए थे, तो यहीं पर उन्होंने इस पुस्तक की रचना की थी। बांग्ला साल 1298 और हिंदी कैलेंडर के अनुसार 28 जुलाई 1891 को ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने इस पुस्तक की रचना नंदनकानन में की थी।

जामताड़ा से ही साक्षरता अभियान की शुरुआत

यही नहीं ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने यहीं से ही साक्षरता अभियान का भी शुभारंभ किया था। कर्माटांड़ में लिखी यह पुस्तक वर्ण परिचय आज की तिथि में पूरे विश्व के बंगाली समुदाय की पहली पुस्तक है। इसी पुस्तक को पढ़कर बच्चे अक्षर ज्ञान प्राप्त करते हैं। जिस कारण आज लगभग 150 वर्ष होने के बाद भी इस पुस्तक को बंगाली समुदाय में काफी आवश्यक और आदरणीय रचनाओं में से एक माना जाता है।

बच्चे तथा बुजुर्गों को भी पढ़ने का करते थे काम

ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने न सिर्फ यहां पुस्तक लिखी थी बल्कि यहां बच्चे तथा बुजुर्गों को पढ़ने का भी काम करते थे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर दिन में लड़कों-लड़कियों को और रात्रि में बुजुर्गों को पढ़ाने का कार्य किया जाता था ।

आज भी धरोहर के रूप में स्थापित है विद्यासागर की कर्मभूमि

ईश्वर चंद्र विद्यासागर जिस नंदनकानन में रहा करते थे। वहां आज भी उनका पलंग सहित कई अन्य सामान रखा हुआ है। जिसकी देखभाल की जिम्मेदारी बंगाली समुदाय के लोगों के पास है। प्रत्येक वर्ष बंगाली समुदाय के लोग यहां पर आते हैं और ईश्वर चंद्र विद्यासागर की जयंती मनाते हैं। वर्ष 2023 में ही बंगाली समुदाय के लोगों ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर का शताब्दी वर्ष मनाया और यहां भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

ऐसे मिली विद्यासागर की उपाधि

ईश्वर चंद्र विद्यासागर बंगाल के पुनर्जागरण के स्तंभों में से एक थे। 26 सितंबर 1820 में जन्मे ईश्वरचंद्र विद्यासागर समाज सुधारक, शिक्षा शास़्त्री के साथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे। उनका बचपन का नाम ईश्वर चंद्र बंदोपाध्याय था। वे संस्कृत भाषा और दर्शन के अगाध विद्वान थे। जिसके कारण विद्यार्थी जीवन में ही संस्कृत कॉलेज ने ‘विद्यासागर’ की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने 1857 से 60 के बीच 25 विधवाओं का पुनर्विवाह कराया। विधवा विवाह के साथ ही उन्होंने नारी शिक्षा के लिए पहल की। खासतौर से महिला शिक्षा के लिए 35 स्कूल खुलवाए। जामताड़ा के कर्माटांड़ में भी महिलाओं के लिए स्कूल खुलवाएं। महाराष्ट्र के बाद यह महिलाओं के लिए दूसरा स्कूल था।

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